Page 56 - School Magazine
P. 56

समय बड़ा अनमोल                                                                    फ ू लों की घाटी

        सहाये भत फना ए दोस्त सहाये ट ू ट जाते हैं                                        चरो चरे एक घाटी भें
        न कय ककस्भत ऩय बयोसा ससताये ट ू ट जाते हैं |                                     प ू रों की सुॊदय वादी भें
        न सोच कक तू ककनाये ऩय खड़ा है                                                     कहीॊ के सय, कहीॊ गुराफ

        रहयों को आमे जोश तो ककनाये ट ू ट जाते हैं |                                      तो कहीॊ गेंदा भुस्कामा है |
        इततहास के  ऩात्र के वर वो ही रोग होते हैं जो सभम की क़द्र कयते हैं | इततहास के वर   इन प ू रों को देखकय

        उनहीॊ का सरखा जाता है जो भेहनत कयते हैं, ककस्भत के वर उनहीॊ की चभकती है जो       भेया भन हषाामा है
        ककस्भत सरखना जानते हैं | जजतनी सशद्दत से आऩ अऩनी भॊजजर ढ ूॉढते हो, क्मा आऩ       जूही शयभाती, चभेरी इतयाती
        जानते हो वास्तव भें भॊजजर बी सही ऩात्र को ढ ूॉढ यही होती है | राखों की बीड़ भें से   चॊऩई प ू रों की सुगॊध

        सपरता ऩात्र का चमन कयके  उसको उठा रेती है औय जानते हो वो ऩात्र कौन होता है       फहत है बाती
                                                                                           ु
        जो भेहनत कयता है सभम का सदुऩमोग कयता है | ककस्भत के  बयोसे फैठे यहने वारे रोग    प ू रों को जानो

        कबी सपर नहीॊ हो ऩाते, भान रो आऩको मदद ककस्भत से क ु छ सभर बी जाएगा तो आऩ         छ ू कय उनहें ऩहचानो
        ऩय ज्मादा सभम तक रुके गा नहीॊ |                                                  तुभ बी खुश हो जाओगे
                       अरुअॊश जैन (कऺा 9 ‘अ’)                                            फात भेयी मह भानो |

                                                                                                              एरयश खान (कऺा 6 ‘अ’)
        कविता                                                                            जजनदगी

        आज  भेया कववता सरखने का भन कय  यहा है |                                          काश ! जजनदगी एक ककताफ होती,
        भेये सभत्रों का साथ भुझभें जोश बय यहा है |                                       ऩढ़ ऩाती की आगे क्मा होगा,
                                                                                         क्मा ऩाऊॉ गी  औय ददर क्मा खोएगा,
        नीॊद आती है कॉऩी ककताफों के  नाभ से
                                                                                         देख ऩाती कक ददर हॉसेगा मा योएगा,
        डय रगता है ऩयीऺा के  अॊजाभ से
                                                                                         पाड़ देती उन ऩननों को जो भुझे ऱूराते
        अऩनी सोच को दो ऩॊजक्तमों भें यकमक्त कय  यहा हॉ
                                                 ू
                                                                                         जोड़ रेती उन ऩननों को जो भुझे हॉसाते
        करभ के  भाध्मभ से अऩने सऩनों को सच कय यहा हॉ |                                   फाय–फाय उन ऩननों को ऩरटकय देखती
                                                   ू
                              चचयाग कटारयमा (कऺा 9 ‘फ’)                                  औय उन हसीन रम्हों भें खो जाती |

                                                                                         काश !  जजनदगी का हय भोड़, नए ऩनने से शुऱू कय ऩाती
                                                                                         जजनदगी की ककताफ, काश भैं खुद सरख ऩाती,
                                                                                         काश ! जजनदगी एक ककताफ होती |

                                                                                                                             अऩयाजजता त्रत्रऩाठी (कऺा 8 ‘अ’)
   51   52   53   54   55   56   57   58   59   60   61